Mr. K.C. Singh (Kaku) – Stylo Saloon, PAN Loop

पैन लूप के एक कोने में था, कदम्ब का एक पेड़। आज़ाद नेहरू पटेल छात्रावासों के सानिध्य में बसे उस पेड़ के निचे एक नाई की दूकान खुली थी। बात 1965 की थी जब 15 साल का बालक अपने पिता का हाथ बताने भागलपुर से खड़गपुर  आया था, नाम थाखगेन्द्र चंद्र सिंह ये नाम उतना प्रसिद्ध नहीं, काफ़ी कम लोग इन्हें जानते हैं। पर यूँ ही कभी पीएफसी की ओर से गुज़रते हुए मिल जाएगी, “काकूकी दूकान “Stylo Saloon”| छोटी सी टिपरी से शुरुआत हुई थी इस सफर की जो 6 दशकों से चल रहा है. इनका नामकाकूकैसे पड़ा, किसने दिया, ये भी एक मज़ेदार कहानी है। सन ‘60 का दशक था, प्रांगण में धूम्रपान निषेध होने के कारण सिग्रेटे नहीं मिलती थी। तीन छात्रों की लालसा उन्हें उस नै के पास ले आई।काकू तुम कैंपस के बहार से आते हो, सो क्या सिगरेट ला सकते हो!और तभी से शुरुआत हुई एक रिश्ते की जो आज भीकाकूनाम से लोगों को सेवा एवं स्नेह प्रदान कर रहा है।

 

बचपन में बहुत शरारती होने के कारण काफ़ी बार बाबूजी की डाँट सुननी पड़ती थी। थोड़े बड़े हुए तो चाचा-चाची के पास भागलपुर भेज दिया गया ताकि कुछ काम सीख सके. चाचा जी डॉक्टर थे तो उनके रौब के कारन वहाँ काफ़ी खातिर होती थी। बिहार(तत्कालीन) में साल भर बिताने के कारण भाषा बांग्ला से भोजपुरी होने लगी। घर वालों को ये बात डराने लगी तो बाबूजी ने वापस बुला लिया खड़गपुर और एक नाई की दूकान खोल दी. तब कैंपस में एक दो ही दुकानें थी और नाई की एकलौती दूकान होने के कारण काफ़ी लोग आने लगे। लोग आते और काकू उन्हें दोस्त बनकर विदा करते।  काकू को आज भी भरोसा है तोह दो चीज़ों परअपनी कैंची और अपने उन दोस्तों पर जो उन्होंने अपने जीवन में बनाएँ. आज भी दूर विदेशों से जब कोई एलम खड़गपुर  लौटता है तो बिना काकू से मिले उसे संतोष नहीं होता। आखिर दोस्ती सीमाओं और ओहदे से बंधी कहाँ होती है! वे बताते हैं की खड़गपुर  के ही एक प्रोफेसर हैं जो कभी यहीं पढ़ा करते थे और उनकी दूकान में बाल कटाने आया करते थे। जब उनकी शादी हुई और बच्चे हुए तो उनके भी बाल वे काकू से ही कटवाते थे। अपनापन इतना था की काकू बुलाने पर खुद उनके घर जाया करते ताकि प्रोफेसर हो चुके उनके कस्टमर को परेशानी हो। ऐसी ही कई कहानियों से घिरी है कहानी स्टीलो सलून के काकू की!

 

काकू कहते हैं, “मैंने खड़गपुर को केजीपी बनते देखा है, काले बालों को सफ़ेद होते देखा है!”  उनका घर खड़गपुर  में ही होने के कारण और बाबूजी का कैंपस में ही कर्मचारी होने के कारण काफी बार कैंपस आना जाना होता था। ये वही दौर था जब छात्रावास बन रहे थेपटेल, आज़ाद, नेहरू काजन्महो रहा था। गिने चुने छात्रों के बीच जो भाईचारा देखने को मिलता था वो काकू को बहुत पसंद है, पर इस बदलते दौर में और बढ़ती आबादी में कहीं ये रिश्ता कमज़ोर पड़ता दिखाई देता है। वे कहते है कि आज लोग एक दुसरे के लिए उतनी सद्भावना नहीं रखते जितना आज से ४०५० साल पहले देखने को मिलता था। रिश्तों कि प्रगाढ़ता अब दुर्लभ है और अब दाइत्व हमारा है कि इस परंपरा को आगे बढ़ाएँ। उन्होंने वो समय भी देखा है जब अनुजअग्रज के बीच कुछघटनाएँहुआ करती थी और एक अलगसा माहौल हुआ करता था;बड़ा ही रोचक होता था वो सब. अब ये गतिविधियाँ विलुप्त होती जा रही हैं और साथ ही वो माहौल भी। पर इसी तरह काफ़ी बदलाव आएँ हैं जो हितकर हैं। नए लोगों के आने से इस जगह का अच्छा विकास हुआ है। चहलपहल बढ़ी है और लोगों कि खुशियाँ भी!

 

आज भले ही उनकी दूकान पहले के मुकाबले कम जानी पहचानी जाती है पर आज भी वो गिने चुने लोगों के मन में काकू के लिए उतना ही प्रेम और इज़्ज़त है जितना आज से 5 दशक पहले हुआ करता था।

बांग्ला में काकू का अर्थ होता है चाचाऔर आज, 50 वर्षों के बाद भी उनके लिए खड़गपुर की जनता अपने बच्चों के सामान ही है, चाहे वो यहाँ हो या विदेश में।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *